सिनेमा प्रेम और वास्तविकता का फासला !

जिस देश में शाहरुख खान को भगवान माना जाता है, वहीं 100 में से केवल 3 लोग ही साल भर में एक बार भी मल्टीप्लेक्स जाते हैं। और सबसे बड़ा झटका? आपके पसंदीदा सुपरस्टार की अगली फिल्म शायद ही किसी सिनेमाघर में दिखेगी ,सीधे आपके मोबाइल पर OTT पर आएगी!
हाल ही में आमिर खान की फिल्म “सितारे ज़मीन पर” आई थी। सितारों का तो पता नहीं, लेकिन दिन में तारे ज़रूर नज़र आ रहे हैं फिल्म निर्माताओं को। आमिर खान का कहना था कि भारत की आबादी का सिर्फ 2-3 प्रतिशत लोग ही सिनेमा हॉल में फिल्म देखने जाते हैं। यह आंकड़ा सुनकर चौंकाने वाला लगता है, खासकर उस देश के लिए जहां सिनेमा को धर्म माना जाता है।
भारत में फिल्मों के प्रति दीवानगी ज़रूर है, लेकिन सिनेमाघर तक जाना अब एक कठिन डगर हो गई है। फिल्म विशेषज्ञ इस सवाल का जवाब खोजने में लगे हैं कि आखिर जनता क्यों नहीं आ रही है फिल्म देखने।
भारत में हर साल दर्जनों भाषाओं में लगभग 2000 फीचर फिल्में बनती हैं, जो दुनिया में किसी भी अन्य देश से कहीं अधिक है। इस साल की पहली तिमाही में केवल विकी कौशल की छावा ब्लॉकबस्टर हो सकी है। पिछले साल भी गिनती की फिल्में ब्लॉकबस्टर हो सकी थीं।
इन हज़ारों फिल्मों में से करीब 35 प्रतिशत ही थिएटरों में लगती हैं, बाकी टेलीविजन या ऑनलाइन रिलीज होती हैं। यह स्थिति बताती है कि सिनेमाघर अब फिल्म रिलीज का पहला विकल्प नहीं रहे।
सुविधाओं की कमी और बुनियादी समस्याएं
भारत में लगभग 12 हज़ार सिनेमाघर हैं, लेकिन यह आबादी के अनुपात में नगण्य है। प्रति 10 लाख लोगों पर सिर्फ 8 सिनेमाघर हैं। तुलना के लिए, अमेरिका में यह संख्या प्रति 10 लाख पर 350 सिनेमाघर है।
FY25 की दूसरी तिमाही में PVR Inox की फुटफॉल (दर्शकों की संख्या) में 19.9% की गिरावट आई। कोविड से पहले के स्तर की तुलना में 20-25% की गिरावट देखी गई है।
भारत में सिनेमाघरों की संख्या में गिरावट के प्रमुख कारण हैं:
- ज़मीन की आसमान छूती कीमतें
- सिनेमाघरों में सफाई और सुविधाओं का अभाव
- मनोरंजन टैक्स की ऊंची दर
- टेलीविजन, होम वीडियो और स्ट्रीमिंग सेवाओं का प्रभाव
डिजिटल क्रांति का प्रभाव
आज के युग में जब हर हाथ में स्क्रीन है, तो सब मिलकर एक स्क्रीन देखने की गुंजाइश कम हो गई है। मेट्रो में सफर के दौरान हर तरफ यही नज़र आता है कि लोग अपने मोबाइल पर कुछ न कुछ देख रहे होते हैं। स्क्रीन से प्यार कम तो नहीं हुआ, लेकिन वह हफ्ते के अंत का मजा अब नहीं रहा जब हम साथ-साथ फिल्म देखने जाते थे।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 90% लोग फिल्में नहीं देखते या सिनेमाघर तक नहीं पहुंचते। इसमें लिंग आधारित असंतुलन भी दिखता है – सिनेमाघरों में जाने वाले 52% पुरुष आबादी, कुल दर्शक वर्ग में 61% का योगदान करती है।
दक्षिण भारत में बेहतर स्थिति
दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण भारत में सिनेमाघरों में जाने वाले लोगों की आदत सबसे ज़्यादा है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में सिनेमा संस्कृति अभी भी जीवंत है।
फिल्म व्यापार विश्लेषक तरण आदर्श का कहना है: “सिनेमाघरों की चुनौती केवल टिकट की कीमत नहीं है, बल्कि पूरा अनुभव है। लोग घर पर बेहतर साउंड सिस्टम और आरामदायक वातावरण पा रहे हैं।”
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोगों में रुचि उतनी नहीं रही जितनी एक समय में हुआ करती थी। सिनेमाघर में जाकर फिल्म देखना अब चुनौती रह गया है।
समाधान के रूप में कई सुझाव दिए जा रहे हैं:
- टिकटों की कीमतों में कमी
- सिनेमाघरों में बेहतर सुविधाएं
- क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों को बढ़ावा
- पारिवारिक मनोरंजन के विकल्प
कई लोग इस इंतज़ार में रहते हैं कि जब फिल्म टीवी पर आएगी तभी देख लेंगे। यह सोच सिनेमाघरों के लिए बड़ी चुनौती है। हिंदी फिल्में पूरे देश के दिल-दिमाग को प्रभावित करती हैं, फिर भी इस फिल्म प्रेमी देश में आबादी के लिए सिनेमाघरों का औसत बहुत कम है।
आने वाले समय में सिनेमाघरों को अपने मॉडल में बदलाव करना होगा। सामुदायिक सिनेमा देखने का अनुभव फिर से जीवंत करना होगा, वरना यह सुनहरा काल केवल यादों में सिमट जाएगा।
मजा आया और दुख भी हुआ। मुझे याद है कैसे सिनेमा में फ़िल्म देखना एक ग्रैंड इवेंट हुआ करता था कैसे हफ्तों किसी नई फ़िल्म का इंतज़ार रहता , फिर परिवार या दोस्तों के साथ कुछ यादगार लम्हे अँधेरे हॉल में बिताए जाते थे ! कहीं ना कहीं ये हमारी फ़ैमिली सिस्टम के ब्रेकडाउन, लोनेलिनेस को भी दिखता है.एक अलग टाइप का एलिनेशन जो बढ़ता जा रहा है।!!!