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गोरखपुर की धूल भरी गलियों से शुरू हुआ वो सफर जो लखनऊ के सत्ता के गलियारों तक पहुंचा। एक साधारण पुजारी के बेटे पंडित हरि शंकर तिवारी ने खुद को उत्तर प्रदेश के सबसे खौफनाक और असरदार “सत्ता के सूत्रधार” के रूप में खड़ा कर दिया। उन्होंने एक ऐसे दौर की नींव रखी जहां बाहुबल और मतपेटी एक हो गए, जहां जुर्म ने राजनीति का चेहरा ओढ़ लिया।

“कानून व्यवस्था चौकस है”,आज यह जुमला पूरे उत्तर प्रदेश में गर्व से दोहराया जाता है। लेकिन यह वही सूबा है जो कभी माफिया की लड़ाइयों, राजनीतिक खून-खराबे और कानून की धज्जियों का नाम हुआ करता था। इस कथित स्थिरता की असली कहानी समझनी हो तो उन दशकों में झांकना होगा जब सत्ता मतपत्रों से नहीं, गोलियों की नोक पर तय होती थी। और उस पूरी कहानी का केंद्र था एक नाम -पंडित हरि शंकर तिवारी,वो शख्स जिसने भारत के सबसे उथल-पुथल भरे राज्य में ताकत का पूरा व्याकरण ही बदल दिया।

कहानी शुरू होती है सत्तर के दशक के आखिर में, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश जातीय झड़पों और आपराधिक साम्राज्यों की भट्टी में तप रहा था। गोरखपुर, देवरिया और आजमगढ़ को “भारत का शिकागो” कहा जाने लगा था,एक ऐसा खिताब जो रूह कंपा देता था। यह ठाकुरवाद का दौर था, जब ऊंची जाति के राजपूतों का दबदबा था और ब्राह्मण बिरादरी अक्सर उनकी बेरहमी का निशाना बनती थी।

इसी बेचैन करने वाले माहौल में उभरा एक शांत, तेज दिमाग वाला ब्राह्मण विद्वान, हरि शंकर तिवारी। कभी समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे तिवारी ने शिक्षा और ज्ञान से समाज सुधार का सपना देखा था। मगर जब हिंसा और बेइज्जती उनके आदर्शवाद से टकराई तो उन्हें एक कड़वी हकीकत का एहसास हुआ,शांति सिर्फ ताकत से हासिल हो सकती है। अस्सी के दशक की शुरुआत तक वे एक नरम मिजाज के अध्यापक से बदलकर एक ऐसे राजनीतिक जुगाड़ी बन चुके थे जिनकी सड़कों पर पकड़ थी।

असली मोड़ तब आया उन्नीस सौ पचासी में, जब तिवारी ने चिल्लूपार से चुनाव लड़ा और जेल में बंद रहते हुए फतह हासिल की! यह महज एक चुनावी जीत नहीं थी,यह एक सामाजिक बगावत थी। भारतीय राजनीति में पहली बार कोई आपराधिक मामलों में फंसा शख्स जातीय गर्व और सामुदायिक पहचान का प्रतीक बन गया। “जय जय शंकर, जय हरि शंकर”,यह नारा पूरब के यूपी के ब्राह्मणों के इलाकों में बिजली की तरह दौड़ गया।

उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कल्याण सिंह की भाजपा हो या मायावती की बसपा,अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारों में छह बार कैबिनेट मंत्री बनकर तिवारी ने राजनीतिक बाजीगरी का हुनर सीख लिया। उनका रौब इतना था कि बड़े-बड़े अफसर और वजीर तक उनकी सलाह लेते थे। लोगों ने उन्हें “यूपी राजनीति के भीष्म पितामह” की उपाधि दे दी।

लेकिन राजनीतिक चकाचौंध के पीछे छिपी थी वो व्यवस्था जिसे माफिया राज कहा गया,एक गहरी जड़ें जमाई हुई ताकत जहां ठेके, पुलिस की पोस्टिंग, यहां तक कि अदालती फैसले भी राजनीतिक आकाओं के इशारे पर तय होते थे। अमरमणि त्रिपाठी और मुख्तार अंसारी जैसे नाम उसी नक्शे पर चले जो तिवारी ने अनजाने में खींच दिया था: डर से इज्जत कमाओ, जाति से ताकत जोड़ो, और राजनीति से जुर्म को जायज ठहराओ।

यह सिर्फ गुंडों की कहानी नहीं थी। यह एक पूरी व्यवस्था थी जहां बंदूक और बैलेट, खून और वोट, डर और दबदबा सब एक दूसरे में घुल गए थे। पूरब का यूपी एक ऐसा अखाड़ा बन गया जहां राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं, बल्कि जिंदा रहने का फार्मूला था। जिसके पास बंदूक थी उसके पास बैज था, जिसके पास बैज था उसके पास बचाव था, और जिसके पास बचाव था उसके पास बेहिसाब ताकत थी।

तिवारी ने एक ऐसा खेल खेला जिसमें हर मोहरा उनकी उंगलियों पर नाचता था। गांव में पंचायत हो या संसद में सत्र, उनका दखल हर जगह था। वे सिर्फ एक नेता नहीं थे,वे एक संस्था थे, एक परंपरा थे, एक डर थे जो पूरब के हर कोने में फैला हुआ था।

दशकों बीत गए। गुंडे विधायक बन गए, डॉन मंत्री बन गए, और उत्तर प्रदेश का लोकतंत्र बंदूक का बंधक बन गया। मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती। वक्त ने एक और करवट ली। जो साम्राज्य तिवारी ने बनाया था, वो धीरे-धीरे ढहने लगा। फिर भी आज जब कहा जाता है कि “कानून व्यवस्था मजबूत है”, तो यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि सूबे ने सबसे काला दौर देखा है और उससे उबरने की हिम्मत जुटाई है।

हाल के बरसों में हुए बेशुमार “एनकाउंटर”, संदिग्ध “सड़क हादसे”, और माफिया साम्राज्यों की सरेआम तबाही ये सब एक अधूरे हिसाब-किताब के अध्याय हैं। जो लोग कभी खुद को कानून से बड़ा मानते थे, वे आज या तो जेल की सलाखों के पीछे हैं या फिर मिट्टी के नीचे।

लेकिन भूल मत जाइए इस बदलाव की जड़ें उसी दौर में हैं जब गोरखपुर के एक नौजवान ने फैसला किया कि शांति सिर्फ ताकत से बचाई जा सकती है। तिवारी ने जो बीज बोया था, उसकी फसल आज भी काटी जा रही है: कभी खून में, कभी आंसुओं में, कभी एनकाउंटर में, और कभी सन्नाटे में।

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