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बीते जमाने में दादी माँ कहा करती थीं – “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।” आज का युवा इस कहावत को एक नए अंदाज में जी रहा है। शहरों में तेजी से बढ़ता कम्यूनिटी लिविंग का चलन कोई फैशन नहीं, बल्कि जरूरत और जमाने की मांग है।

दिल्ली की इंजीनियर अन्नू अपने तीन दोस्तों के साथ एक फ्लैट में रहती है। उसका कहना है, “यहाँ हर किसी की अपनी प्राइवेसी है, लेकिन अकेलेपन से छुटकारा भी है।” यही है आज की साझा जिंदगी की सच्चाई।

भारत में कम्यूनिटी लिविंग का चलन सिर्फ फैशन नहीं है – यह एक बूमिंग इंडस्ट्री है। कुशमैन एंड वेकफील्ड की रिपोर्ट के अनुसार, 2025 तक भारत के टॉप 30 शहरों में कम्यूनिटी लिविंग का बाजार 6.67 बिलियन डॉलर से बढ़कर 13.92 बिलियन डॉलर हो जाएगा – यानी दोगुना से भी ज्यादा!

कॉलियर्स की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 तक 4.5 लाख बेड्स की मांग होगी, जो 2021 के 2.1 लाख से दोगुनी है। सबसे दिलचस्प बात – ज्यादातर कम्यूनिटी लिविंग स्पेसेस में 85-90% ऑक्यूपेंसी है और महीने का किराया 10,000 से 35,000 रुपये तक है।

क्यों चुन रहे हैं लोग कम्यूनिटी लिविंग?

भारत में 44 करोड़ मिलेनियल्स हैं – दुनिया में सबसे ज्यादा! इनमें से 40% माइग्रेंट वर्कर हैं जो किफायती आवास की तलाश में हैं। 2024 में देश के बड़े शहरों में किराया 9% तक बढ़ गया है, ऐसे में कम्यूनिटी लिविंग का विकल्प और भी आकर्षक हो गया है।

छात्रों के लिए यह खासकर फायदेमंद है। 2024 में 55.78% स्टूडेंट एकोमोडेशन मार्केट शेयर्ड रूम्स का है, जहाँ टियर-2 शहरों में महीने का किराया 8,000-15,000 रुपये है।

मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव है। IKEA की लाइफ एट होम रिपोर्ट के अनुसार, 67% लोगों ने कहा कि कम्यूनिटी लिविंग से उनकी मानसिक सेहत बेहतर हुई है। अकेलेपन से बचना, तनाव कम करना और सामाजिक रिश्ते बनाना – यह सब इसकी देन है।

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। कम्यूनिटी लिविंग में भी कुछ दिक्कतें हैं। प्राइवेसी की कमी, अलग-अलग आदतों का टकराव और जिम्मेदारियों का बंटवारा – ये सब समस्याएं हैं। कई बार सफाई को लेकर झगड़े होते हैं, बिजली-पानी के बिल को लेकर तकरार होती है।

सबसे बड़ी चुनौती है रूममेट्स का चुनाव। गलत लोगों के साथ रहना मानसिक परेशानी का कारण बन सकता है। इसलिए एक्सपर्ट्स कहते हैं कि रूममेट चुनने से पहले उनकी आदतों, काम के समय और जीवनशैली को समझना जरूरी है।

यह नई जीवनशैली हमारे सामाजिक ताने-बाने को बदल रही है। FICCI और JLL की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लक्जरी कम्यूनिटी लिविंग मार्केट 17.2% की दर से बढ़ रहा है। पहले परिवार में रिश्ते गहरे होते थे, अब दोस्ती के रिश्ते ज्यादा मजबूत हो रहे हैं।

2025 तक 75% वर्कफोर्स मिलेनियल्स का होगा। यह पीढ़ी कमिटमेंट से ज्यादा फ्लेक्सिबिलिटी चाहती है। विवाह की उम्र बढ़ रही है, करियर को प्राथमिकता दी जा रही है। क्या यह स्वतंत्रता है या जिम्मेदारी से भागना – यह बहस का मुद्दा है।

दरअसल, कम्यूनिटी लिविंग हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। हिंदू संयुक्त परिवार व्यवस्था में कई पीढ़ियां एक ही घर में रहती थीं, जहाँ पुरुष वंशज अपनी पत्नियों और अविवाहित बेटियों के साथ एक सामान्य पूर्वज के घर में रहते थे।

गुरुकुल परंपरा में भी छात्र गुरु के परिवार के साथ रहते थे। आचार्य उन्हें खाना देता, पढ़ाता और परिवार का सदस्य मानता था। यह व्यवस्था केवल शिक्षा देने तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन मूल्यों और व्यावहारिक कौशल देने का भी माध्यम थी।

कम्यूनिटी लिविंग अपनाने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। साझा करने वाले लोगों की वित्तीय स्थिति, व्यक्तित्व और जीवनशैली को समझें। शराब-नशे की लत, अनियमित दिनचर्या या बहुत ज्यादा मेहमान आने की आदत वाले लोगों से बचें।

सबसे अहम बात – स्पष्ट नियम तय करें। सफाई, खर्च, मेहमानों और निजता के बारे में पहले से ही बात कर लें।

कम्यूनिटी लिविंग आज के समय की मांग है, लेकिन अंधाधुंध नहीं अपनानी चाहिए। यह एक संतुलित विकल्प हो सकता है, बशर्ते कि सही तरीके से इसे अपनाया जाए। हमारी पुरानी परंपराओं में भी साझा जिंदगी के फायदे छुपे हुए हैं – बस उन्हें आधुनिक जमाने के हिसाब से ढालना है।

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